शहीदो का नगर शाहजहांपुर,उसका उपनगर रोज़ा,अब तक के राजनैतिक इतिहास में दर्जन भर राजनेता या कहे जनप्रतिनिधि यानी जनता की समस्या सें सीधे सरोकार,और उनके प्रति जबाबदेह,लेकिन सब सत्ता के नशे में मदहोश व मस्तचूर सोचते होंगे,5/किलो राशन उनके जीवन के किए पर्याप्त है। दो सांसद,तीन मंत्री,6/विधायक,और तीन एमएलसी, एक ज़िलापंचायत अध्यक्ष, ब्लॉक प्रमुख,इसके अलावा रुतवा ग़ालिब करने के लिए,इनके सैकड़ो प्रतिनिधि,लेकिन जनता से संवाद,किसी का नही।उनकी समस्या के प्रति कोई ज़बाबदेही भी नही।आज एही लोक का तंत्र है,या कहे एही लूट का तंत्र,एक फैशन का रूप ले रहा है।
जनहित में चलने वाली पैसेंजर ट्रेनो को एक्सप्रेस का दर्ज़ा देकर किराया बढा दिया।छोटी दूरी,और हर स्टेशनो पर रुकने वाली अधिकांश ट्रेन पूरी तरह से बंद कर दी गई है।10 km सें 100 km।तक की मेमो, डेमो,पैसेंजर ट्रेनो का भी कोई अता-पता नही की,कहाँ लापता हो गई।10 रुपए से 25 रुपए में शाहजहांपुर सें सीतापुर जाने के लिए,तीन ट्रेनो के स्थान पर एक ट्रेन चल रही,वह भी 45-रुपए के किराए सें 80 km की दूरी तय करने में 3 सें 4 घंटे का समय।है ना भारत की बुलट ट्रेन का सफ़र।
कोविड काल से पहले रोज़ा स्टेशन पर अप-डाउन की करीब तीन दर्जन सें अधिक ट्रेनो के यहां ठहराव थे।यहां सें रेलवे स्टाफ का क्र्यू चेंज होता था,ट्रेनो का संचालन होता था लेकिन अब मुश्किल सें दो या तीन ट्रेन ही खड़ी होती है। सीतापुर की ओर सें आने वाली ट्रेने,तो तकनीकी कारणो सें खड़ा करना,उनकी मज़बूरी है।
रोजा से बरेली रोजा बरेली पैसेंजर सहारनपुर पैसेंजर इलाहाबाद पैसेंजर रेवाड़ी दिल्ली सीतापुर पैसेंजर यह सब बंद है रोज़ा का रोड साइड स्टेशन नही है।यहां साइडिंग है,हर साल क़रीब करोड़ो क्या अरबो की कमाई होती है।रोज़ा तापीय परियोजना,रोज़ा चीनी मिल के अलावा आसपास के करीब तीन दर्जन गांव के लोग व शहर के रेती पुत्तुलाल,दलेलगंज या कहे आधे शहर के मोहल्ले के लोगो के लिए,शाहजहांपुर की अपेक्षा रोज़ा सें यात्रा करना सुलभ और सरल है।
जन से जनप्रतिनिधि चुने जाते है,जो लोकतंत्र के लिए सड़को पर उतर आते है,लेकिन अपने शहर के दर्जन भर माननीय शायद ही पार्लियामेंट सें लेकर असेंबली तक अपने जन की आवाज़ उठाते नही देखे गए।उन्हे केवल पत्र-लिख सोशल/मीडिया पर,उसे पोस्ट कर आमजन को भरमाने की कोशिश कर,सिर्फ़ ये दिखाने का प्रयास होता है,कि हम ही आपके लड़ाई लड़ रहे है,अरे एक बार संसद या रेलवे बोर्ड में ज़मीन पर बैठकर धरना तो दीजिए,तभी जनतंत्र आपको अपना हितैषी समझने का प्रयास करेगा।आज हमारे लोक-तंत्र की बस एही विडंबना है।इनके ना तो कोई सिद्धान्त है,और ना ही अपना कर्तव्यबोध,क्या कहे,वन नेशन,वन कार्ड,वनमैन का दौर है,जहां लोकतंत्र या जनतंत्र,इसका कोई मायने नही रखता।
रिपोर्ट -अजीत मिश्रा शाहजहांपुर
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